स्वस्थ बहस पुष्पित-पल्लवित लोकतंत्र की पहचान है: उपराष्ट्रपति धनखड़

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नई दिल्ली,19 सिंतबर। उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति, जगदीप धनखड़ ने भारतीय संसद की 75 साल की अनवरत यात्रा के महत्व पर बल दिया और उन उपलब्धियों, अनुभवों, यादों और शिक्षण पर प्रकाश डाला जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र को स्वरूप प्रदान किया है। संसदीय लोकतंत्र में “जनता की अटूट आस्था और अटूट विश्वास” को रेखांकित करते हुए, उपराष्ट्रपति ने जोर देकर कहा, “हमारे लोकतंत्र की सफलता “हम भारत के लोगों” का एक सामूहिक, ठोस प्रयास है।

राज्यसभा के 261वें सत्र की शुरुआत में प्रारंभिक टिप्पणी देते हुए, उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा कि राज्यसभा के पवित्र परिसर ने 15 अगस्त, 1947 को मध्यरात्रि में ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी (नियति से वादा)’ के भाषण से लेकर 30 जून, 2017 की मध्यरात्रि में अभिनव अग्रगामी जीएसटी व्यवस्था के अनावरण तक कई ऐतिहासिक क्षण देखे हैं।

संविधान सभा में तीन वर्षों तक चले विभिन्न सत्रों में हुए विचार-विमर्श ने मर्यादा और स्वस्थ बहस का उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसका स्मरण करने हुए सभापति ने कहा कि विवादास्पद और अत्यधिक विभाजनकारी मुद्दों पर सर्वसम्मति की भावना से विचार-विमर्श हुआ।

स्वस्थ बहस को एक पुष्पित-पल्लवित लोकतंत्र का प्रतीक बताते हुए, उपराष्ट्रपति धनखड़ ने टकरावपूर्ण स्थिति और व्यवधान और अशांति को हथियार के रूप में प्रयोग किए जाने के विरूद्ध आगाह किया। उन्होंने जोर देकर कहा, “हम सभी को संवैधानिक रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों का पोषण करने के लिए नियुक्त किया गया है इसलिए हमें लोगों के विश्वास पर खरा उतरना चाहिए और उसकी पुष्टि करनी चाहिए।”

संसद के अंदर विवेक, हास्य और व्यंग्य के महत्व पर प्रकाश डालते हुए, उपराष्ट्रपति धनखड़ ने उन्हें एक सशक्त लोकतंत्र का अभिन्न पहलू बताया और आशा व्यक्त की कि इस तरह की हल्की-फुल्की और विद्वतापूर्ण बहस फिर से दिखाई देगी।

उपराष्ट्रपति ने सदन के सदस्यों से अनुरोध किया कि वे संसद की गरिमा का ध्यान रखें। उन्होंने कहा कि इस पवित्र परिसर ने कई उतार-चढ़ाव देखें हैं जिनपर हमें विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, “यह सत्र “संविधान सभा से शुरू होने वाली 75 वर्षों की संसदीय यात्रा – उपलब्धियां, अनुभव, यादें और सीख” पर चिंतन और आत्मनिरीक्षण करने का एक उपयुक्त अवसर प्रदान करता है।

उपराष्ट्रपति ने हमारे स्वतंत्रता सेनानियों, संवैधानिक सृजकों, राजनेताओं और सिविल सेवकों के योगदान को भी स्वीकार किया जिन्होंने भारत के लोकतांत्रिक आदर्शों को बनाए रखा और समृद्ध किया है।

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