“बाप” के विराट कद में दब गया “बेटे” का कद

विजयवर्गीय द्वारा बुना गया सामाजिक तानाबाना तोड़ नही पाए संजय

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चुनाव में जो लिखा, वो ही जिले की अमूमन सभी 9 सीटों पर घटा। ख़ुलासा फर्स्ट की इस कड़ी में आपको इंदौर जिले की सभी 9 विधानसभा क्षेत्रो में फिर ले चलते हैं। जानते है कैसे हुई जय, कैसे हुई पराजय। क्या कारण रहे कि उम्मीदवार जीती बाजी हार गए औऱ क्या रणनीति रही कि हारी हुई बाजी जीत ली गई। ख़ुलासा फर्स्ट ने चलते चुनाव में जमीनी हक़ीक़त सब उम्मीदवारों की उज़ागर की थी। तयशुदा जीते माने जा रहे उम्मीदवारों को वक्त रहते आगाह भी किया। परिणाम के 24 घन्टे पहले ये बताया भी कि वो कौन कौन से चेहरे रुसवा होने जा रहें हैं, जिनके चेहरे से जीत का नूर टपक रहा था। इन चेहरों के जरिये स्पष्ट कर दिया कि इंदौर में मामला 9-0 होने जा रहा हैं। जिस बात का भरोसा स्वयम कमलदल को नही था, उसे पाठको के भरोसे औऱ टीम ख़ुलासा की मेहनत के दम पर हमने ख़ुलासा कर दिया। यू तो हार जीत पर सबकी कलम चल रही हैं। सब पढ़ भी रहे है लेकिन आपके इस पक्का इंदौरी अखबार से उम्मीदें ज्यादा बढ़ चली है। नतीजतन परिणाम आने के बाद से मनुहार चल रही है कि ख़ुलासा फर्स्ट लिखे। परिणाम के तुरंत बाद से प्रदेश की सियासत में घटनाक्रम इतना तेजी से घूम रहा है कि हम करंट पर ही फोकस किये हुए थे। हमे लगा पाठको ने तमाम विश्लेषण पढ़ लिए लेकिन न जाने क्यों सब ख़ुलासा फर्स्ट में जिले की सभी 9 सीट की जय-पराजय पर विस्तार से पढ़ना चाहते हैं। तो हाजिर है मिशन 2023 में जिले में हुए घमासान पर सिलसिलेवार खबर। शुरुआत उस विधानसभा-1 से जिस पर समूचे प्रदेश की नजर थी। इसे “हॉट सीट” कहा गया लेकिन हमने बताया था कि वहां मुकाबला “कूल” ही चल रहा है। सिवाय “जुबानी जमा खर्च” के।

यहां मुकाबला अपरोक्ष रूप से बाप बेटे का ही था। कैलाश विजयवर्गीय और स्व विष्णुप्रसाद शुक्ला के बीच का आत्मीय रिश्ता किसी से छुपा नही। चुनाव उसी पृष्ठभूमि में हुआ और दोनो उम्मीदवार ने “बाप-बेटे” की परिभाषा गढ़ी। कहने को ये अंचल ही नही, प्रदेश की हॉट सीट थी लेकिन मुकाबला यहां पूरे समय कूल ही रहा। लेकिन “संसाधन” दोनो तरफ से जमकर “लुटाए” गए। ये काम तंग बस्ती इलाको में ज्यादा हुआ और दोनो दल इसमे पीछे नही रहे। घर गृहस्थी की चीजों से लेकर आभूषण-मोबाईल तक “टके सेर भाजी” से बाटे गए।

विजयवर्गीय की रणनीति से संजय शुक्ला कोसो दूर रह गए और बुरी तरह चुनाव हार गए। विजयवर्गीय ने अपनी उम्मीदवारी घोषित होते ही विधानसभा में सामाजिक तालमेल बैठाना शुरू कर दिया था। उन समाजो पर विशेष फोकस किया, जिनकी संख्या ज्यादा थी। इसमे ब्राह्मण, यादव, जैन, गुजराती दर्जी, साहू समाज, प्रजापत समाज, राठौर समाज प्रमुख रहे। एक तरफ सामजिक सम्मेलनों के जरिये समूचे समाजजनों के बीच विजयवर्गीय की “विराट छवि” के दर्शन करवाये गए और समाजहित के अनेकानेक वादे भी मौके पर किये। सामाजिक तानेबाने को साधने की ये कवायद सिर्फ भीड़ भरे सम्मेलन पर नही रुकी। इन समाजो में जाकर घर घर दस्तक भी दी। खासकर यादव समाज और जैन समाज। यादव समाज के घर घर मे विजयवर्गीय समर्थक पहुँचे। रिश्तेदारियाँ तलाशी गई और उन्हें भी काम पर लगाया। सम्बन्धियों के परस्पर सम्बन्ध भुनाए गए।

यहां मुकाबला अपरोक्ष रूप से बाप बेटे का ही था। कैलाश विजयवर्गीय और स्व विष्णुप्रसाद शुक्ला के बीच का आत्मीय रिश्ता किसी से छुपा नही। चुनाव उसी पृष्ठभूमि में हुआ और दोनो उम्मीदवार ने “बाप-बेटे” की परिभाषा गढ़ी। कहने को ये अंचल ही नही, प्रदेश की हॉट सीट थी लेकिन मुकाबला यहां पूरे समय कूल ही रहा। लेकिन “संसाधन” दोनो तरफ से जमकर “लुटाए” गए। ये काम तंग बस्ती इलाको में ज्यादा हुआ और दोनो दल इसमे पीछे नही रहे। घर गृहस्थी की चीजों से लेकर आभूषण-मोबाईल तक “टके सेर भाजी” से बाटे गए।

विजयवर्गीय की रणनीति से संजय शुक्ला कोसो दूर रह गए और बुरी तरह चुनाव हार गए। विजयवर्गीय ने अपनी उम्मीदवारी घोषित होते ही विधानसभा में सामाजिक तालमेल बैठाना शुरू कर दिया था। उन समाजो पर विशेष फोकस किया, जिनकी संख्या ज्यादा थी। इसमे ब्राह्मण, यादव, जैन, गुजराती दर्जी, साहू समाज, प्रजापत समाज, राठौर समाज प्रमुख रहे। एक तरफ सामजिक सम्मेलनों के जरिये समूचे समाजजनों के बीच विजयवर्गीय की “विराट छवि” के दर्शन करवाये गए और समाजहित के अनेकानेक वादे भी मौके पर किये। सामाजिक तानेबाने को साधने की ये कवायद सिर्फ भीड़ भरे सम्मेलन पर नही रुकी। इन समाजो में जाकर घर घर दस्तक भी दी। खासकर यादव समाज और जैन समाज। यादव समाज के घर घर मे विजयवर्गीय समर्थक पहुँचे। रिश्तेदारियाँ तलाशी गई और उन्हें भी काम पर लगाया। सम्बन्धियों के परस्पर सम्बन्ध भुनाए गए।

संजय शुक्ला स्वयम के प्रबंधन, इष्ट मित्रो-शुभचिंतकों की टीम औऱ परिवार भरोसे चुनाव लड़े। उन्हें कांग्रेस संगठन का भी भरपूर साथ मिला। घर घर दस्तक देने में भी शुक्ला पीछे नही रहे। उनकी श्रीमती ने 4 थी मंजिल तक मनुहार करने में गुरेज़ नही किया। बेटे सागर ने कई कई वार्ड सम्भाल रखे थे। शुक्ला का काम, व्यवहार, तीर्थ यात्राएं, कथाएं, भंडारे सब काम कर रहे थे। लग ही नही रहा था कि वे वाकई इस तरह पीछे रह जाएंगे। एरोड्रम रॉड का “60 फ़ीट” वाले हिस्से के दोनों किनारों पर बनी कालोनियों औऱ बस्तियों पर उनको पूरा भरोसा था। “बाणगंगा” को वो अपना मानकर चल रहे थे। लेकिन परिणाम बता रहे थे कि 60 फ़ीट रॉड तो दूर उनके अपने “बाणगंगे” ने उनका साथ नही दिया। जबकि यहां दीपू यादव ने कड़ी मेहनत की थी। पार्षद पत्नी विनितिका यादव ने भी जमकर काम किया। यादव-शुक्ला की जुगलबंदी इस चुनाव में सबसे बेहतर रही। उदाहरण प्रियंका गांधी का रोड शो रहा जिसमे गांधी के साथ जीप में संजय ने विनितिका यादव को सवार किया। वे पूरे समय तक प्रियंका के साथ रही।

लब्बोलुआब बस इतना ही कि बाप के विराट कद के आगे बेटे का कद बोना साबित हो गया। विजयवर्गीय की “राष्ट्रीय छवि” औऱ उनका ” सीएम मटेरियल” होना इतना भारी रहा कि मतदाताओं के बीच ये बात गहरे से पेठ गई कि कैलाश सीएम बनेंगे। हालांकि विजयवर्गीय के पक्ष में जो सबसे मजबूत बात रही वो उनके “कमिटमेंट” का रहा। यानी जिससे जो वादा किया, उसे पूरा करते हैं। जनता को उनके नाम और काम पर भरोसा था। वो काम देख चुकी थी। बस इनाम ही शेष था, जो जनता ने भरपूर विजयवर्गीय को दे दिया। ख़ुलासा फर्स्ट ने बताया था कि विजयवर्गीय 50 हजार से जीतेंगे। स्वयम विजयवर्गीय कैम्प इस आंकड़े पर हतप्रभ था कि ख़ुलासा कैसे लिख रहा हैं। लेकिन आपका ये पक्का इंदौरी अखबार सही साबित हुआ।

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