अमेरिका के फैसलों ने पहले भी 4 बार दुनिया हिलाई
नई दिल्ली, 8 अप्रैल 2025: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 60 देशों पर टैरिफ लगा दिया है। इस वजह से दुनियाभर के शेयर बाजार में उथल-पुथल मच गई है। भारत के सेंसेक्स में 19 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हो चुका है।
एक्सपर्ट्स का मानना है कि आने वाले दिनों में इसमें और इजाफा हो सकता है। यह पहली बार नहीं है जब अमेरिका के किसी फैसले से दुनियाभर के बाजार में गिरावट आई है।
1929- कर्ज लेकर शेयर खरीदे, बुलबुला फूटा तो आया ‘द ग्रेट डिप्रेशन’
प्रथम विश्वयुद्ध के खत्म होने के बाद अमेरिका सुपर पावर के तौर पर उभरा था। इकोनॉमी तेजी से बढ़ रही थी। शेयर बाजार को लेकर तब लोगों की यह समझ बन गई थी कि यह हमेशा ऊपर ही जाएगा।
इस वजह से लोग कर्ज लेकर भी शेयर खरीद रहे थे। निवेशक अपनी पूंजी का 10 से 20% पैसा लगाते थे, बाकी ब्रोकर से कर्ज ले लेते। अमेरिकी सरकार ने इस जोखिम भरे खेल पर कोई रोक नहीं लगाया। तब शेयर मार्केट को कंट्रोल करने के लिए कोई एजेंसी भी नहीं थी।
1928 के अंत तक बाजार में शेयर की कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ गईं। डाउ जोन्स 1921 में 63 अंकों पर था। 8 साल बाद यह 6 गुना बढ़कर 381 अंकों पर पहुंच चुका था। दूसरी तरफ अमेरिका में मजदूरों और किसानों की इनकम बढ़ नहीं रही थी। कंपनियों का मुनाफा आसमान छू रहा था।
इस वजह से मांग और आपूर्ति में भारी अंतर पैदा हो गया था। कंपनियां खूब सारा प्रोडक्ट्स बना रही थीं, लेकिन उस अनुपात में बिक नहीं रहे थे। इसका असर मार्केट पर पड़ा। अचानक शेयर गिरने लगे, इस नुकसान की भरपाई के लिए लोगों ने शेयर बेचना शुरू कर दिया। इससे बाजार और तेजी से गिरा, लोगों ने फिर शेयर बेचे। यह एक चेन रिएक्शन बन गया।
अखबारों ने इस घटना को बढ़ा-चढ़ाकर छापा, जिसने निवेशकों का डर और बढ़ गया। छोटे निवेशक, जो मार्जिन पर भारी कर्ज में थे, सबसे ज्यादा घबराए।
बैंकों से पैसा निकालने की होड़ मची; 3 साल में 9,000 बैंक दिवालिया
- 29 अक्टूबर 1929 को शेयर बाजार में एक ही दिन में 13% की गिरावट हुई। इसके बाद कई महीनों तक बाजार में गिरावट जारी रही, जिससे लाखों निवेशक भारी नुकसान में आ गए। बैंकों ने अपना कर्ज वसूलने की कोशिश, लेकिन निवेशकों के पास पैसा नहीं था।
- लोन का पैसा हासिल न होने से बैंक फेल होने लगे। लोगों का यकीन बैंक पर से उठ गया। वे अपनी जमा पूंजी निकालने लगे। बैंकों के आगे पैसे निकालने वालों की लंबी-लंबी कतारें लगने लगीं। 1930-33 के बीच अमेरिका में 9,000 से ज्यादा बैंक दिवालिया हो गए।
- देश में बेरोजगारी 3% से बढ़कर 25% हो गई। 1.5 करोड़ से ज्यादा लोग बेरोजगार हो गए। कई इंडस्ट्री बंद हो गईं और लोग सड़कों पर भीख मांगने लगे।
- 1929 में शुरू हुई मंदी पूरी दुनिया में फैली। भारत में जूट, कपास और चाय के निर्यात पर असर पड़ा। किसानों की आय गिरी। ब्रिटिश सामानों की मांग कम होने से भारतीय उद्योग पर भी असर पड़ा।
- इस आर्थिक संकट ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष को और बढ़ाया, भारत में आजादी की मांग और तेज हुई। इस मंदी का असर 10 साल तक रहा।
- भारत के अलावा कई देशों में इसकी वजह से राजनीतिक अस्थिरता फैली। जर्मनी में नाजी पार्टी के आने की वजह और दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने की वजह इसी मंदी को माना जाता है।
1971- डॉलर दो सोना लो सिस्टम फेल, दुनिया को ‘निक्सन शॉक’ मिला
दूसरे विश्वयुद्ध तक ज्यादातर देशों के पास जितना सोने का भंडार होता था, वो उतनी ही वैल्यू की करेंसी जारी करते थे। 1944 में ब्रेटन वुड्स सिस्टम के शुरू होने से यह सिस्टम बदल गया। तब दुनिया के 44 देशों के डेलिगेट्स मिले और अमेरिकी डॉलर के मुकाबले सभी करेंसी का एक्सचेंज रेट तय किया।
अमेरिकी डॉलर के मुकाबले इसलिए, क्योंकि तब अमेरिका के पास सबसे ज्यादा सोने का भंडार था और वो दुनिया की सबसे बड़ी और स्थिर अर्थव्यवस्था था। तब अमेरिका ने यह वादा किया था कि कोई भी देश अपने डॉलर को सोना में बदल सकता है। इसे ‘गोल्ड विंडो’ कहा जाता था। जब ये वादा किया गया था तब अमेरिका के पास 20 हजार टन सोना था जो कि दुनिया का 70% था।