काल्पनिक नहीं है ‘लव-जिहाद’ का मुद्दा
काल्पनिक नहीं है ‘लव-जिहाद’ का मुद्दा
-बलबीर पुंज
‘लव-जिहाद’ सच है या ‘इस्लामोफोबिया’ से जनित मिथक? क्या किसी भी सभ्य समाज को दो व्यस्कों में सहमति से बने संबंधों के बीच आना चाहिए? क्या मुस्लिम युवकों का गैर-मुस्लिम युवतियों के प्रति आकर्षण केवल नैसर्गिक प्रेम के कारण होता है? जब भी इस प्रकार के मामले सार्वजनिक विमर्श में आते है, तब ऐसे प्रश्न स्वाभाविक है। गत 14 जनवरी को दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर ने ‘लव-जिहाद’ को कल्पनिक बताकर इसे पुन: दक्षिणपंथी संगठनों की उपज घोषित करने का प्रयास किया। लगभग उसी कालखंड में देश में ऐसी कई शिकायतें पुलिस तक पहुंची, जिन्हें ‘लव-जिहाद’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
उत्तरप्रदेश स्थित लखनऊ में हिंदू युवती ने अपनी शिकायत में पति सुशील मौर्य, जिसका वास्तविक नाम चांद मोहम्मद है— उसपर अपनी मजहबी पहचान छिपाकर उससे शादी करने, जबरन गौमांस खिलाने, शरीर को खौलते तेल और सिगरेट से जलाने के साथ लात मारकर पांच माह का गर्भ गिराने का आरोप लगाया है। वही इसी राज्य के प्रयागराज में 21 वर्षीय नर्सिंग छात्रा ने मोहम्मद आलम पर अनुज प्रताप सिंह उर्फ सोनू बनकर उससे प्रेमजाल में फंसाने, शादी के बाद भाइयों से यौन-संबंध बनाने का दवाब डालने और मुकदमा वापस लेने हेतु धमकी देने का आरोप लगाया है। इसी तरह बिहार के वाल्मिकिनगर में एक युवती ने जाकिर पर रोशन बनकर उसका प्रेमसंबंध के बहाने यौन-शोषण करने का आक्षेप लगाया है।
यह केवल बानगी है, प्रेम के नाम पर धोखाधड़ी के ऐसे सैंकड़ों उदाहरण है, जो सरकारी दस्तावेजों में अंकित है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022 में देशभर में 150 से अधिक ‘लव-जिहाद’ के मामले सामने आए, जिसमें से 99 घटनाओं में मुस्लिम युवकों ने अपनी मजहबी पहचान छिपाकर गैर-मुस्लिम— अधिकांश हिंदू युवती को अपने प्रेमजाल में फंसाया, इनमें छह ने अपने वैवाहिक होने की जानकारी तक छिपाई, तो 43 मामलों में हिंदू देवी-देवता की मूर्तियों को तोड़ने से लेकर गौमांस खिलाने और बुर्का पहनने से लेकर अपने मित्रों या सगे-संबंधियों से बलात्कार तक करवाने या फिर अश्लील वीडियो को सार्वजनिक करने की धमकी देने का आरोप था। इनमें 7 पीड़िताएं अनुसूचित जाति-जनजाति समाज से है।
भारत में अंतर-मजहबी प्रेम-विवाह न तो कोई नया है और न ही कोई अपराध। किंतु ऐसा क्यों है कि अधिकांश मामलों में लड़का ही मुसलमान और लड़की हिंदू, सिख या ईसाई होती है? बहुत कम ही ऐसे प्रकरण होते है, जिसमें लड़की मुस्लिम और लड़का गैर-इस्लामी हो। इस स्थिति को केरल के उस आंकड़े से समझा जा सकता है, जिसे वर्ष 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ओमान चांडी ने विधानसभा में प्रस्तुत किया था। उसके अनुसार, 2009-12 के बीच 2,667 गैर-मुस्लिम महिलाएं (2,195 हिंदू और 492 ईसाई) इस्लाम मतांतरित हुई थी, जबकि उसी दौर में केवल 81 मुस्लिम महिलाओं ने मतांतरण किया। स्पष्ट है कि इस्लाम में विवाहित गैर-मुस्लिम महिलाओं की संख्या, इस्लाम से बाहर जाकर विवाह और मतांतरण करने वाली मुस्लिम महिलाओं से 33 गुना अधिक है।
स्पष्ट है कि इस तरह के तथाकथित प्रेम-प्रसंग, विशुद्ध प्रेम की भावना से प्रेरित नहीं होते। इसमें संभवत: मजहबी कारण भी है। ऐसे मामलों में ‘प्रेम’ गौण और इस्लाम के प्रति जिहादी दायित्व की पूर्ति का भाव कहीं अधिक होता है। इसमें ‘प्रेम’ केवल माध्यम, तो उसकी मंजिल ‘जिहाद’ और उसके द्वारा प्राप्त होने वाला ‘सवाब’ है। शायद इसलिए इससे ‘लव-जिहाद’ शब्दावली का जन्म हुआ।
“डेमोग्राफिक इस्लामिजेशन: नॉन-मुस्लिम्स इन मुस्लिम कंट्री” नामक एक दस्तावेज में फ्रांसीसी जनसांख्यिकी, समाजशास्त्री और यूरोपीय विश्वविद्यालय में प्रवासन नीति केंद्र के निदेशक फिलिप फर्ग्यूस ने बताया कि कैसे प्रेम और विवाह के माध्यम से इस्लामीकरण किया जा रहा है। फर्ग्यूस कहते हैं, “प्रेम अब इस्लामीकरण की सतत प्रक्रिया में वही भूमिका निभा रहा है, जो अतीत में बलपूर्वक किया जाता था।” अर्थात्— इस्लाम के विस्तार में ‘प्रेम’ ने बलपूर्वक तरीकों का स्थान ले लिया है। इस्लामी अनुसंधानकर्ता हसाम मुनीर ने “हाउ इस्लाम स्प्रेड थ्रूआउट द वर्ल्ड” शीर्षक से एक शोधपत्र में तैयार किया है, जो यकीन संस्थान नामक वेबसाइट पर उपलब्ध है। मुनीर के अनुसार, “इस्लाम के प्रसार में मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच अंतरमजहबी विवाह ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है… इस प्रक्रिया से इस्लाम में मतांतरित होने वाले लोगों में सर्वाधिक महिलाएं थीं।”
लेखक और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में इस्लामी इतिहासकार क्रिश्चियन सी.साहनर ने अपनी पुस्तक “क्रिश्चियन मार्ट्यर्स अंडर इस्लाम: रिलीजियस वॉयलेंस एंड मेकिंग ऑफ द मुस्लिम वर्ल्ड” (प्रिंसटन विश्वविद्यालय प्रेस) में लिखा है, “इस्लाम शयन कक्ष के माध्यम से ईसाई दुनिया में फैला।” स्पष्ट है कि गैर-मुस्लिम महिलाओं से मुस्लिम पुरुषों का विवाह विशुद्ध मजहबी एजेंडा है। यह केवल भारत तक सीमित नहीं। ब्रिटेन आदि संपन्न यूरोपीय देश भी इससे त्रस्त है। ब्रितानी दल— लेबर पार्टी की महिला सांसद सारा चैंपियन कई अवसरों पर मुस्लिम युवकों (अधिकांश पाकिस्तानी) द्वारा ईसाई और सिख युवतियों के संगठित यौन शोषण का मुद्दा उठा चुकी है।
आखिर क्यों अधिकांश अंतर-मजहबी प्रेमसंबंधों या विवाहों में पुरुष मुसलमान और महिला गैर-मुस्लिम होती है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि इस्लाम से बाहर उनकी शादी वर्जित है। यह मजहबी पाबंदी मुस्लिम समाज का अकाट्य हिस्सा आज भी है। अमेरिकी शोध संस्थान ‘प्यू’ के अनुसार, मुस्लिम परिवारों में पुत्रों द्वारा किसी गैर-मुस्लिम से विवाह की स्वीकार्यता काफी सघन है, प्रतिकूल इसके वे अपनी पुत्रियों का अंतर-मजहबी विवाह या तो बहुत कम पसंद करते है या इसकी सख्त मनाही है। भारत में भी स्थिति इससे अलग नहीं है। क्या यह मजहबी निषेधाज्ञा किसी भी सूरत में आधुनिक या उदार कही जा सकती है?
यदि एक ओर देश में ‘लव-जिहाद’ के खिलाफ भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या अन्य हिंदूवादी संगठन मुखर है, तो इसी प्रकार के स्वर अन्य समाज के साथ कुछ कम्युनिस्ट-कांग्रेसी नेता भी उठा चुके है। जुलाई 2010 में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ वामपंथी वी.एस. अच्युतानंदन, केरल में योजनाबद्ध तरीके से मुस्लिम युवकों द्वारा विवाह के माध्यम से हिंदू-ईसाई युवतियों के मतांतरण का उल्लेख कर चुके थे। केरल उच्च न्यायालय भी समय-समय पर इस संबंध में सुरक्षा एजेंसियों को जांच के निर्देश दे चुकी है। यही नहीं, ‘लव-जिहाद’ के खिलाफ केरल के ईसाई संगठनों ने वर्ष 2009 में सबसे पहले आवाज बुलंद की थी, जो अब भी सुस्पष्ट है।
‘लव-जिहाद’ का चलन भारत के साथ अन्य गैर-इस्लामी देशों में अधिक क्यों है? पाकिस्तान सहित अधिकांश इस्लामी देशों का वैचारिक अधिष्ठान ‘काफिर’ विरोधी दर्शन पर आधारित है। इसलिए वहां मतांतरण में स्थानीय लोगों और प्रशासन का भी समर्थन मिलता है। अब चूंकि लोकतांत्रिक भारत हिंदू बहुल है, जहां 80 प्रतिशत से अधिक आबादी ‘काफिरों’ की है— इसलिए यहां अब मध्यकालीन तौर-तरीके अपनाकर गैर-मुस्लिमों का मतांतरण कठिन है। इसी कारण यहां ‘जिहाद’ के लिए तथाकथित ‘लव’ का प्रयोग किया जाता है। इसमें मजहबी ‘सवाब’ पाने हेतु उस ‘तकैया’ का अनुसरण किया जाता है, जिसमें मजहबी फर्ज पूरा करने हेतु छल-कपट का प्रावधान है। इसलिए भारत में जितने भी ‘लव-जिहाद’ के मामले आते है, उसमें अधिकांश मुस्लिम अपनी इस्लामी पहचान छिपाने हेतु बिना किसी ‘कुफ्र’बोध के माथे पर तिलक, हाथ में कलावा, देवी-देवताओं की उपासना और हिंदू नामों आदि का उपयोग करते है। क्या कोई समाज इस तरह की मजहब प्रेरित धोखेबाजी को प्रेम की संज्ञा देकर सभ्य होने का दावा कर सकता है?