सुप्रीम कोर्ट में कब मिलेगा भारतीय भाषाओं को उनका हक

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सुप्रीम कोर्ट में देश की आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी सिर्फ अंग्रेजी में ही जिरह करने की अनिवार्यता बताना उन तमाम भारतीय भाषाओं की अनदेखी और अपमान ही माना जाएगा, जिसमें इस देश के करोड़ों लोग आपस में संवाद करते हैं। अंग्रेजी से किसी को एतराज भी नहीं है। अंग्रेजी एक तरह से विश्व संवाद की एक भाषा है और हमारे अपने देश में भी इसका हर स्तर पर उपयोग होता है। जहां जरूरी होने में हर्ज भी नहीं है। पर सुप्रीम कोर्ट में तो सिर्फ इसी का उपयोग किया जा सकता है। यह सही कैसे माना जाए? यह तो अंग्रेजों की गुलामी को दर्शाने वाली व्यवस्था है जो तत्काल खत्म होनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट में कुछ समय पहले ही एक अलग ही तरह का शर्मनाक मामला देखने को मिला जहां हिंदी में दलील दे रहे एक शख्स को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने टोक दिया। दरअसल, शीर्ष अदालत में याचिकाकर्ता शंकर लाल शर्मा जैसे ही अपने केस की खुद जिरह करने लगे। वे लगातार हिंदी में दलीलें दिए जा रहे थे, जिसपर जस्टिस केएम जोसेफ और हृषिकेश रॉय की पीठ ने सख्त आपत्ति जताई। दोनों जजों ने कहा कि आप क्या बोल रहे हैं? हमें समझ नहीं आ रहा है। यहां (सुप्रीम कोर्ट) की भाषा अंग्रेजी है। आप अंग्रेजी में बोलिए। यदि आप चाहें तो हम आपको एक वकील प्रदान कर सकते हैं जो आपके मामले पर बहस अंग्रेजी में करेगा। हालांकि, याचिकाकर्ता जज की बात को नहीं समझ पा रहे थे और लगातार हिंदी में ही अपनी दलीलें देते ही जा रहे थे। शर्मा ने कहा कि उनका मामला शीर्ष अदालत सहित विभिन्न अदालतों में जा चुका है, लेकिन उन्हें कहीं से भी राहत नहीं मिली है। हमें न्याय चाहिए।

जरा सोचिए कि सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी का वर्चस्व किस लिए और किस तरह बना हुआ है? और इसकी क्या जरूरत है? सुप्रीम कोर्ट में आज भी कोई वकील अंग्रेजी से हटकर किसी अन्य भाषा में अपनी पैरवी नहीं कर सकता। क्यों नहीं सुप्रीम कोर्ट में वकील हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में अपनी बात रखें? देश की आजादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी का राज बरकरार है। मसला ये है कि सुप्रीम कोर्ट में भारतीय भाषाओं को सम्मानजनक स्थान कब मिलेगा? बेशक, सुप्रीम कोर्ट में हिंदी भाषा में याचिकाएं जब हम संसद तक में सभी भाषाओं में अपनी बात रख सकते हैं तो सुप्रीम कोर्ट में क्यों नहीं? पेश करने तथा जिरह की इजाजत मिलनी चाहिए। पूर्व चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने अपने कार्यकाल के दौरान स्पष्ट कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट की भाषा अंग्रेजी ही है और इसकी जगह हिंदी को लाने के लिए वह केंद्र सरकार या संसद को कानून बनाने के लिए नहीं कह सकते क्योंकि ऐसा करना विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल देने समान होगा। वे अपनी जगह पर शायद ठीक कह रहे होंगे। पर अगर सुप्रीम कोर्ट में भारतीय भाषाओं को भी जगह मिल जाएं तो आम आदमी भी इधर न्याय पाने के लिए आराम से पहुंचने लगेगा। अभी तो सुप्रीम कोर्ट में जाने की वही सोच सकता है, जो हर डेट पर लाखों की फीस का इंतजाम कर सके। ऐसी गरीब विरोधी प्रथा क्या संविधान निर्माताओं ने सोची भी होगी क्या ? यह समझ से परे है।

देखिए जो अभ्यर्थी सिविल सर्विसेज की परीक्षा के लिए बैठते हैं, उन्हें पहले प्रिलिम्स की परीक्षा को पास करनी होती है। उसके बाद उन्हें मेन पेपर में बैठने से पहले एक अंग्रेजी और एक पेपर संविधान की आठवीं अनुसूची में दी गईं 22 भाषाओं में से किसी एक का भी पास करना होता हैं। ये 22 भाषाएं हैं असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू, उर्दू, बोडो, संथाली, मैथिली और डोगरी। इन भाषाओं में से 14 भाषाओं को संविधान के प्रारंभ में ही शामिल कर लिया गया था। वर्ष 1967 में सिंधी भाषा को 21वें सविधान संशोधन अधिनियम द्वारा आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया था। वर्ष 1992 में 71वें संशोधन अधिनियम द्वारा कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को शामिल किया गया। वर्ष 2003 में 92वें सविधान संशोधन अधिनियम जो कि वर्ष 2004 से प्रभावी हुआ, द्वारा बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।

एक बार अभ्यर्थी जब अंग्रेजी और दूसरा पेपर 22 भारतीय भाषाओं में से किसी एक का सफलतापूर्वक पास कर लेता है तब ही वह मेन पेपर को दे सकता है। तो जब देश के चोटी के बाबू बनने के लिए उपर्युक्त भाषाओं में से एक भारतीय भाषा को जानना आवश्यक है तो फिर सुप्रीम कोर्ट जज बनने के लिए ऐसी जन उपयोगी शर्त क्यों नहीं रखी जाती। इसमें दिक्कत कहां हैं? सिर्फ अंग्रेजी में ही जिरह की इजाजत होने के चलते हम कैसे कह सकते हैं कि हमारे यहां सबको न्याय मिल रहा है? यह कहना या दावा करना सही नहीं माना जा सकता है। कि देश की जनता की भाषा में सुप्रीम कोर्ट के अंदर सुनवाई क्यों न हो या फैसले न सुनाए जाएं? आईएएस अधिकारियों को जब प्रदेशों का कैडर अलाट किया जाता है तब उन्हें उस प्रदेश की भाषा सीख कर उसमें परीक्षा पास करना आवश्यक होता है। ऐसा ही कानून विभिन्न हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के लिए लागू क्यों न हो। ज्यादा से ज्यादा भारतीय भाषाओं को जानने वालों को ही सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के चुनाव में प्राथमिकता मिले।

सुप्रीम कोर्ट को भाषा के स्तर पर अपना रवैया लचीला बनाना ही होगा। अब हर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को जगह मिल रही है। कॉरपोरेट संसार को ही लें। कुछ साल पहले तक यहां पर अंग्रेजी का ही बोलबाला था। राजधानी में देश के प्रमुख उद्योगपतियों की संस्था फिक्की की 50 साल से अधिक पुरानी बिल्डिंग में अब सम्मेलनों में हिन्दी भी बोली जाने लगी है। यहां अंग्रेजी का एकछत्र राज ढह रहा है। यानी हिन्दी उद्योग और वाणिज्य जगत में अपनी दस्तक दे रही है। हालांकि पहले भी मारवाड़ी,उत्तर और पश्चिम भारत से जुड़ी उद्योग जगत की हस्तियां जैसे भारती एयरटेल के अध्यक्ष सुनील भारती मित्तल, हीरो समूह के प्रमुख पवन मुंजाल, जिंदल साउथ वेस्ट के अध्यक्ष सज्जन जिंदल आदि हिन्दी में ही अपने पेशेवरों से बातचीत करते थे। अब हिन्दी बड़ी कंपनियों की बोर्ड रूम में भी प्रवेश कर गई है। एसोचैम और सीआईआई के दफ्तरों में भी हिन्दी खूब बोली-सुनी जा रही है। हिंदी अपने लिए नई जमीन अवश्य तैयार कर रही है। आवश्यकता पड़ने पर टाटा समूह के पूर्व चेयरमेन तथा मेनेटर रतन टाटा और एचसीएल टेक्नॉलाजीज के संस्थापक अध्यक्ष शिव नाडर भी हिंदी में वक्तव्य देने लगते हैं। यानी वक्त के साथ दुनिया बदल रही है। तो फिर सुप्रीम कोर्ट भी वक्त के साथ क्यों न बदले? वहां भी भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान मिले तो किसी को क्या परेशानी होगी।

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